भूमिहीन और हाशियागत किसान हैं आंदोलन की रीढ़

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भूमिहीन और हाशियागत किसान हैं आंदोलन की रीढ़

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सिंघु में ग्रामीण और कृषि समाज के विभिन्न वर्गों ने इन नए कानूनों के खिलाफ अपना प्रतिरोध जताया है. इनमें भूमिहीन किसान भी हैं, जो अपनी खेती से होने वाली थोड़ी बहुत कमाई को और कामों से पूरा करते हैं और हाशिए के किसान भी हैं जो अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि रखते हैं.गुरमैल सिंह पंजाब के मोगा जिले के निहाल सिंह वाला तहसील में रॉके कलां गांव के एक भूमिहीन कृषक और खेतिहर मजदूर हैं. वे दलित समाज से आने वाले मजहबी सिख हैं जो अपना जीवन यापन थोड़ी ज़मीन किराए पर लेकर करते हैं, जो उद्योगों के द्वारा स्थापित किए बड़े-बड़े खेतों के बाद संभव नहीं होगा.उनका कहना है, "मैं अपनी बेटी को पढ़ा पाया जो आज चंडीगढ़ में एक बैंक में काम करती है. मेरे दोनों बेटे दिहाड़ी मज़दूर हैं. मैं थोड़ी बहुत ज़मीन सब्जी और छोटे पौधे उगाकर बाजार में बेचने के लिए 20,000 रुपए सालाना किराए पर लेता हूं. साल के कुछ महीने हम 300-400 रूपए दिहाड़ी पर दूसरों की फसल काटने में मदद करते हैं. बड़े कृषि उद्योग खेतों को ले लेंगे और फिर वह हमें काम देने से रहे."गुरमैल की तरह ही लाभ सिंह भी एक भूमिहीन मज़हबी सिख हैं जो दलित समाज से आते हैं. वह अमृतसर जिले के अजनाला कस्बे के कोहाली गांव से हैं और वहां की देहाती मजदूर सभा के प्रधान भी हैं.उनका कहना है कि उनके गांव के छोटे किसान और खेतिहर मजदूर दिल्ली की सीमा पर प्रदर्शन में भाग लेने आए हैं. इस समय वह हाईवे पर खड़ी हुई ट्रालियों में बैठकर प्रदर्शन कर रहे हैं. यह ट्रालियां फूस और कपड़ों से उन्हें ठंड से बचाने के लिए ढ़की हुई हैं.लाभ सिंह कहते हैं, "पहले तो मोदी सरकार ने महामारी के दौरान, लॉकडाउन और तरह-तरह की पाबंदियों के बीच में यह कानून लाकर गलती की. दूसरा जब इन कानूनों की वजह से बड़े उद्योगपति कृषि में आ जाएंगे, छोटे किसान और मजदूरों को खेती के लिए जरूरी चीजें जैसे बीज आदि पाना गुंजाइश के बाहर हो जाएगा. बड़े उद्योग घराने हमें लूट लेंगे, वे जल्द ही खेती की उपज की कीमतें तय कर हम में से सबसे गरीब लोगों का शोषण करेंगे.हरदेव सिंह भट्टी अमृतसर के बाबा बुटाला के गांव में एक भूमिहीन खेतिहर मजदूर और राजमिस्त्री होने के साथ-साथ कवि भी हैं. हो भट्टे में हर एक हजार ईंटे बनाने पर 650 रुपये कमाते हैं जिसमें उन्हें आमतौर पर 2 से 3 दिन लगते हैं. भट्टी कहते हैं, "पहले प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की. फिर महामारी के बीच में वह यह कानून लाए हैं जो थोड़ी बहुत मजदूरी पर जीने वालों को गुलाम बना देंगे. सरकार चाहती है कि पूंजी बड़े उद्योग घरानों के पास हो न कि कामगारों के घरों में."गुरमुख सिंह जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी, जो दलित खेती है के रोको आरक्षक भूमि में प्रवेश दिलाने के लिए काम करते है, उसके जोनल सदस्य हैं. प्रदर्शनकारियों के साथ दिल्ली सीमा पर टिकरी में जुड़े और आशंका जताई कि नए कानून सबसे पहले धान और गेहूं के अधिग्रहण को प्रभावित करेंगे. उन्हें आशंका है कि उसके बाद यह सरकारी राशन की दुकानों पर मिलने वाले सस्ते अनाज को धीरे-धीरे खत्म किए जाने की ओर अग्रसर होगा.उन्होंने बताया, "इस सबसे परे, मंडी तंत्र के कमजोर होने का सीधा असर पल्लेदार कामगारों की आजीविका पर पड़ेगा जो धान और गेहूं के बोरे मंडियों से ढ़ोर रेलगाड़ियों तक ले जाते हैं. खाने की जरूरी सामग्री पर भंडारण की सीमा समाप्त होने के कारण गरीबों को खाने की चीजें खरीदना भी दूभर हो जाएगा."

Publisher

Trolley Times

Date

2020-12-31

Contributor

अनुमेहा यादव

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