आंदोलन ने बढ़ाया मज़दूरों का आत्मविश्वास
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आंदोलन ने बढ़ाया मज़दूरों का आत्मविश्वास
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27 नवंबर को दिल्ली कूच के लिए अपनी ट्रैक्टर ट्रॉली लेकर सिंघु बॉर्डर पहुंचे पंजाब हरियाणा के किसानों ने सरकार द्वारा निर्धारित धरना स्थल 'बुराड़ी ग्राउंड' न जाने का फैसला लेते हुए दिल्ली को घेरकर बैठने का फैसला लिया. रणनीतिक तौर पर दिल्ली को घेरकर बैठने वाले किसान, भौगोलिक दृष्टि से हरियाणा के सोनीपत जिले की औद्योगिक नगरी कुंडली के बीचों-बीच जाने वाली जरनैली सड़क (जीटी रोड) पर दिल्ली की तरह मुंह और पंजाब हरियाणा की तरह पीठ किये बैठे हैं और उनकी बायीं और दायीं तरफ औद्योगिक इकाइयां हैं.
इन औद्योगिक इकाइयों में काम करने वाले मज़दूर अगली सुबह यानी 28 नवम्बर को जब अपनी-अपनी इकाइयों में काम करने के लिए जा रहे थे तो किसान उन्हें अपने लिए बने लंगर में भोजन करने के बुला रहे थे. इन औद्योगिक इकाइयों में प्लास्टिक का कचरा बीनने वाले रामस्वरूप उस सर्द सुबह (28 नवम्बर) को याद करते हुए बताते हैं, "मैं अपनी रिक्शा पर अपने काम के लिए निकला तो ट्रैक्टर ट्रॉलियों के बीच चल रहे भंडारे के टैंट के किनारे खड़े एक सरदार जी ने हाथ देकर मेरी रिक्शा रुकवा दी और कहा 'प्रसादा छककर जायो जी'. मैं वहां रुका और किसानों ने मुझे अपने साथ बैठाकर खाना खिलाया. मुझे उस भंडारे में मेरे जैसे कई लोग दिखे जोकि आसपास दिहाड़ी मजूरी वाले ही लोग थे. जब से किसान आये हैं तब से मैं इन्हीं के साथ खाना खा रहा हूँ. बहुत अच्छे लोग हैं ये. सरकार हमारा पेट नहीं भरती. ये लोग भरते हैं. "
इतना कहकर रामस्वरूप का चेहरा शांति से भर जाता है, आंखें नन्हीं होने लगती हैं और इन्हीं नन्हीं आंखों में उभर आए आंसू डूबते सूरज की आखरी किरणों में सतरंगी चमक प्रतिबिंबित करते हैं.
शाम के करीब 5 बजे हैं. सूरज लाली खो रहा है. सिंघु बॉर्डर पर किसानों के ट्रैक्टर ट्रॉलियों के बीच लगे "मज़दूर अधिकार संगठन" के तंबू के सामने खड़े होकर रामस्वरूप मुझसे बातचीत कर रहे थे, जोकि कुछ देर में ही उन मज़दूरों में अदृश्य हो जाते हैं जो अपने काम से छूटने के बाद घर लौट रहे हैं. अनेकों मज़दूर इस तंबू के सामने जमा हैं.
यह संगठन कुंडली औद्योगिक इकाइयों के मज़दूरों की यूनियन है. तम्बू में बैठे कार्यकर्ता शिवा ने मुझे बताया, "इतनी बड़ी संख्या में जब कोई आपके आसपास आता है तो उसकी उपस्थिति महसूस होती है. 29 नवंबर को हम मज़दूर इनकी मौजूदगी और इनके द्वारा हमें खाना खिलाने पर बात कर रहे थे. किसानों से हुई बातचीत के बाद हमें यह भी पता चल गया था कि ये किसान क्यों आंदोलित हैं. मज़दूरों की अपनी मीटिंग में हमने किसानों के समर्थन में 2 दिसंबर को अपना काम बंद रखने और किसानों के साथ आंदोलन में शामिल होने का फैसला लिया. 2 दिसंबर को हम करीब 1500 मज़दूरों ने इक्कठा होकर किसानों के स्टेज तक मार्च किया और किसानों को समर्थन दिया. किसानों की स्टेज पर कुछ मज़दूरों ने अपनी बात भी रखी।"
शिवा बताते हैं, " हम मज़दूरों ने भोपाल गैस त्रासदी गैस में मारे गए मज़दूरों की याद में 3 दिसंबर की शाम को जब मशाल जलूस निकाला तो किसान भी हमारे मशाल जुलूस में शामिल हो गए और उन्होंने हमारे साथ मशालें थामकर मार्च किया. उसके बाद से हमारे अंदर गज़ब का आत्मविश्वास आया है."
मज़दूर संगठन के कार्यकर्ताओं से बातचीत के दौरान ही मैंने तंबू के सामने लगे उस सफेद कपड़े के बैनर की तरफ इशारा किया, जिसपर लाल अक्षरों में लिखा था, 'कंपनी मालिक व ठेकेदार के पैसे न देने पर सम्पर्क करें.'
वहां खड़े साहिल ने मुझे बताया, "किसान आंदोलन में शामिल हो जाने के बाद किसान हमसे लगातार बात करने लग गए. उसके बाद धीरे धीरे कंपनी मालिकों और ठेकेदारों द्वारा मज़दूरों के पैसे न दिए जाने की बात सामने आने लगी. जिसपर कई किसानों ने हमसे कहा कि कंपनी मालिकों से मज़दूरों के पैसे निकलवाने वह उनके साथ चलेंगे. दरअसल लॉकडाउन में मज़दूर अपनी की गई मज़दूरी को छोड़ घर जाने के लिए मजबूर हो गए थे और जब वापस लौटे तो मालिकों में उनका बकाया देना तो दूर पहचानने तक से इनकार कर दिया था."
साहिल बताते हैं, "यह बात सामने आने के बाद हमने इस तम्बू पर यह पोस्टर लगा दिया है. काम पर आते जाते मज़दूर हमसे संपर्क करते हैं. जिसके बाद मज़दूर अधिकार संगठन के कार्यकर्ता और किसान मिलकर कंपनी मालिकों और ठेकेदारों के पास जाते हैं और संघर्ष करके मज़दूरों के पैसे निकलवाते हैं. अब तक करीबन 2 लाख रुपए से ज्यादा पैसे निकलवाने में हम कामयाब हुए हैं."
साहिल ने पास खड़े मज़दूर रिंकू कुमार से मुझे मिलवाया. 35 साल के रिंकू कुमार बिहार के खगड़िया जिले के रहने वाले हैं. मार्च महीने में लगे लॉकडाउन की वजह से उन्हें वापस घर लौटना पड़ा था जिसके कारण उनको उनकी 17 दिन की मज़दूरी के पैसे अबतक नहीं मिले थे. रिंकू बताते हैं, "मैंने तो संतोष कर लिया था कि पैसे नहीं मिलेंगे. लेकिन जब मज़दूर अधिकार संगठन और किसान मेरे साथ गए तो मालिक ने मेरे सारे पैसे दे दिए. कंपनी मालिक मज़दूरों को 15 दिन तक के काम के भी पैसे नहीं देते हैं. लेकिन किसानों और मज़दूरों के दबाव के कारण दो दो दिन की दिहाड़ी के पैसे भी उन्हें देने पड़े हैं. किसान हमें अपने साथ बैठाकर खाना खिलाते हैं. इतना ही नहीं, जो कम्बल रजाई किसानों के लिए बंटने के लिए आए थे, उन्होंने वह कम्बल रजाई हमें भी बांटे हैं."
रिंकू की तरह ही मोनू कुमार को भी उनके 6 दिन की मजदूरी नहीं मिली थी लेकिन 22 दिसंबर को किसान और मज़दूर उनके साथ गए और अपने 2660 रुपए की पूरी मज़दूरी वापस लेकर आए.
मज़दूर अधिकार संगठन की कार्यकर्ता नवदीप ने मुझे बताया, "इस किसान आंदोलन से मज़दूरों को बहुत हिम्मत मिली है. आम दिनों में हम मज़दूर हड़ताल करना तो दूर, पर्चा तक भी नहीं बांट सकते थे, क्योंकि कंपनी मालिकों के संगठन 'कुंडली इंडस्ट्रीज एसोसिएशन' ने एक क्विक रिस्पांस टीम बना रखी है जिसमें बाउंसर हैं. ये बाउंसर मज़दूरों को पीटने और धमकाने के लिए आ जाते हैं. इतना ही नहीं, फैक्टरियों में मज़दूर यूनियन तक नहीं बनने देते हैं। इसके अलावा यहां हिन्दू जाग्रति मंच भी मज़दूरों को इक्कठा होने और यूनियन बनाने से रोकती रही है, क्योंकि कंपनी के मालिक उन्हें चंदा देते हैं. लॉकडाउन के दौरान राशन मांगने के लिए सभा कर रहे मज़दूरों पर हिन्दू जाग्रति मंच ने हमला कर दिया था और मज़दूरों को भगा दिया था। इस आंदोलन और मज़दूरों को मिले किसानों के समर्थन की वजह से ये दोनों ही फोर्स अब चुप बैठी हुई हैं."
अपनी मज़दूरी निकलवाने के लिए मज़दूर अधिकार संगठन के कार्यकर्ताओं से मिलने के लिए अशोक कुमार और उनकी पत्नी रीता देवी आये हैं. पास खड़े होकर हमारी बातचीत सुन रहे अशोक कुमार एकदम से कहते हैं, "एक कंपनी मालिक हमारे पैसे नहीं दे रहा था. मैं तो हार मानकर बैठ गया था, लेकिन किसानों के आने से अब मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है और अब लग रहा है कि मेरे भी पैसे मिल जाएंगे."
इन औद्योगिक इकाइयों में काम करने वाले मज़दूर अगली सुबह यानी 28 नवम्बर को जब अपनी-अपनी इकाइयों में काम करने के लिए जा रहे थे तो किसान उन्हें अपने लिए बने लंगर में भोजन करने के बुला रहे थे. इन औद्योगिक इकाइयों में प्लास्टिक का कचरा बीनने वाले रामस्वरूप उस सर्द सुबह (28 नवम्बर) को याद करते हुए बताते हैं, "मैं अपनी रिक्शा पर अपने काम के लिए निकला तो ट्रैक्टर ट्रॉलियों के बीच चल रहे भंडारे के टैंट के किनारे खड़े एक सरदार जी ने हाथ देकर मेरी रिक्शा रुकवा दी और कहा 'प्रसादा छककर जायो जी'. मैं वहां रुका और किसानों ने मुझे अपने साथ बैठाकर खाना खिलाया. मुझे उस भंडारे में मेरे जैसे कई लोग दिखे जोकि आसपास दिहाड़ी मजूरी वाले ही लोग थे. जब से किसान आये हैं तब से मैं इन्हीं के साथ खाना खा रहा हूँ. बहुत अच्छे लोग हैं ये. सरकार हमारा पेट नहीं भरती. ये लोग भरते हैं. "
इतना कहकर रामस्वरूप का चेहरा शांति से भर जाता है, आंखें नन्हीं होने लगती हैं और इन्हीं नन्हीं आंखों में उभर आए आंसू डूबते सूरज की आखरी किरणों में सतरंगी चमक प्रतिबिंबित करते हैं.
शाम के करीब 5 बजे हैं. सूरज लाली खो रहा है. सिंघु बॉर्डर पर किसानों के ट्रैक्टर ट्रॉलियों के बीच लगे "मज़दूर अधिकार संगठन" के तंबू के सामने खड़े होकर रामस्वरूप मुझसे बातचीत कर रहे थे, जोकि कुछ देर में ही उन मज़दूरों में अदृश्य हो जाते हैं जो अपने काम से छूटने के बाद घर लौट रहे हैं. अनेकों मज़दूर इस तंबू के सामने जमा हैं.
यह संगठन कुंडली औद्योगिक इकाइयों के मज़दूरों की यूनियन है. तम्बू में बैठे कार्यकर्ता शिवा ने मुझे बताया, "इतनी बड़ी संख्या में जब कोई आपके आसपास आता है तो उसकी उपस्थिति महसूस होती है. 29 नवंबर को हम मज़दूर इनकी मौजूदगी और इनके द्वारा हमें खाना खिलाने पर बात कर रहे थे. किसानों से हुई बातचीत के बाद हमें यह भी पता चल गया था कि ये किसान क्यों आंदोलित हैं. मज़दूरों की अपनी मीटिंग में हमने किसानों के समर्थन में 2 दिसंबर को अपना काम बंद रखने और किसानों के साथ आंदोलन में शामिल होने का फैसला लिया. 2 दिसंबर को हम करीब 1500 मज़दूरों ने इक्कठा होकर किसानों के स्टेज तक मार्च किया और किसानों को समर्थन दिया. किसानों की स्टेज पर कुछ मज़दूरों ने अपनी बात भी रखी।"
शिवा बताते हैं, " हम मज़दूरों ने भोपाल गैस त्रासदी गैस में मारे गए मज़दूरों की याद में 3 दिसंबर की शाम को जब मशाल जलूस निकाला तो किसान भी हमारे मशाल जुलूस में शामिल हो गए और उन्होंने हमारे साथ मशालें थामकर मार्च किया. उसके बाद से हमारे अंदर गज़ब का आत्मविश्वास आया है."
मज़दूर संगठन के कार्यकर्ताओं से बातचीत के दौरान ही मैंने तंबू के सामने लगे उस सफेद कपड़े के बैनर की तरफ इशारा किया, जिसपर लाल अक्षरों में लिखा था, 'कंपनी मालिक व ठेकेदार के पैसे न देने पर सम्पर्क करें.'
वहां खड़े साहिल ने मुझे बताया, "किसान आंदोलन में शामिल हो जाने के बाद किसान हमसे लगातार बात करने लग गए. उसके बाद धीरे धीरे कंपनी मालिकों और ठेकेदारों द्वारा मज़दूरों के पैसे न दिए जाने की बात सामने आने लगी. जिसपर कई किसानों ने हमसे कहा कि कंपनी मालिकों से मज़दूरों के पैसे निकलवाने वह उनके साथ चलेंगे. दरअसल लॉकडाउन में मज़दूर अपनी की गई मज़दूरी को छोड़ घर जाने के लिए मजबूर हो गए थे और जब वापस लौटे तो मालिकों में उनका बकाया देना तो दूर पहचानने तक से इनकार कर दिया था."
साहिल बताते हैं, "यह बात सामने आने के बाद हमने इस तम्बू पर यह पोस्टर लगा दिया है. काम पर आते जाते मज़दूर हमसे संपर्क करते हैं. जिसके बाद मज़दूर अधिकार संगठन के कार्यकर्ता और किसान मिलकर कंपनी मालिकों और ठेकेदारों के पास जाते हैं और संघर्ष करके मज़दूरों के पैसे निकलवाते हैं. अब तक करीबन 2 लाख रुपए से ज्यादा पैसे निकलवाने में हम कामयाब हुए हैं."
साहिल ने पास खड़े मज़दूर रिंकू कुमार से मुझे मिलवाया. 35 साल के रिंकू कुमार बिहार के खगड़िया जिले के रहने वाले हैं. मार्च महीने में लगे लॉकडाउन की वजह से उन्हें वापस घर लौटना पड़ा था जिसके कारण उनको उनकी 17 दिन की मज़दूरी के पैसे अबतक नहीं मिले थे. रिंकू बताते हैं, "मैंने तो संतोष कर लिया था कि पैसे नहीं मिलेंगे. लेकिन जब मज़दूर अधिकार संगठन और किसान मेरे साथ गए तो मालिक ने मेरे सारे पैसे दे दिए. कंपनी मालिक मज़दूरों को 15 दिन तक के काम के भी पैसे नहीं देते हैं. लेकिन किसानों और मज़दूरों के दबाव के कारण दो दो दिन की दिहाड़ी के पैसे भी उन्हें देने पड़े हैं. किसान हमें अपने साथ बैठाकर खाना खिलाते हैं. इतना ही नहीं, जो कम्बल रजाई किसानों के लिए बंटने के लिए आए थे, उन्होंने वह कम्बल रजाई हमें भी बांटे हैं."
रिंकू की तरह ही मोनू कुमार को भी उनके 6 दिन की मजदूरी नहीं मिली थी लेकिन 22 दिसंबर को किसान और मज़दूर उनके साथ गए और अपने 2660 रुपए की पूरी मज़दूरी वापस लेकर आए.
मज़दूर अधिकार संगठन की कार्यकर्ता नवदीप ने मुझे बताया, "इस किसान आंदोलन से मज़दूरों को बहुत हिम्मत मिली है. आम दिनों में हम मज़दूर हड़ताल करना तो दूर, पर्चा तक भी नहीं बांट सकते थे, क्योंकि कंपनी मालिकों के संगठन 'कुंडली इंडस्ट्रीज एसोसिएशन' ने एक क्विक रिस्पांस टीम बना रखी है जिसमें बाउंसर हैं. ये बाउंसर मज़दूरों को पीटने और धमकाने के लिए आ जाते हैं. इतना ही नहीं, फैक्टरियों में मज़दूर यूनियन तक नहीं बनने देते हैं। इसके अलावा यहां हिन्दू जाग्रति मंच भी मज़दूरों को इक्कठा होने और यूनियन बनाने से रोकती रही है, क्योंकि कंपनी के मालिक उन्हें चंदा देते हैं. लॉकडाउन के दौरान राशन मांगने के लिए सभा कर रहे मज़दूरों पर हिन्दू जाग्रति मंच ने हमला कर दिया था और मज़दूरों को भगा दिया था। इस आंदोलन और मज़दूरों को मिले किसानों के समर्थन की वजह से ये दोनों ही फोर्स अब चुप बैठी हुई हैं."
अपनी मज़दूरी निकलवाने के लिए मज़दूर अधिकार संगठन के कार्यकर्ताओं से मिलने के लिए अशोक कुमार और उनकी पत्नी रीता देवी आये हैं. पास खड़े होकर हमारी बातचीत सुन रहे अशोक कुमार एकदम से कहते हैं, "एक कंपनी मालिक हमारे पैसे नहीं दे रहा था. मैं तो हार मानकर बैठ गया था, लेकिन किसानों के आने से अब मेरा आत्मविश्वास बढ़ा है और अब लग रहा है कि मेरे भी पैसे मिल जाएंगे."
Publisher
Trolley Times
Date
2020-12-31
Contributor
मनदीप